ज़िन्दगी भर हम ज़िन्दगी को तरसते रहे
मिला न कहीं सुख-चैन शोले बरसते रहे।
हम ज़िन्दगी की यादों से बाहर न आ सके
तनहाइयों में शबो-रोज़ यूँ ही भटकते रहे।
इन्सानियत की बातों पर हँसी थमती नहीं
जीस्त भर इंसान में इंसानियत परखते रहे।
जीने की कोशिश में आखिर हासिल हुआ ये
कि जीस्त भर हम मर-मर के ही मरते रहे।
मंजिलें हमारे समने थीं मुन्तज़िर, मगर
हम खुद कामयाबी की राह से भटकते रहे।
................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
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