नाराजगियों के बहाने बने रहे।
रोज ही चुभता टुकड़ा शीशे का
दर्द सीने के वही पुराने बने रहे।
सिर-आँखों में जब तक रखा था
मोहब्बतों के ही जमाने बने रहे।
मुश्किल से ही अब मालूम हुआ
ठौर मेरा नहीं बे-ठिकाने बने रहे।
भेद-राग गाते हैं वो अपनेपन से
सुनकर भी हम अनजाने बने रहे।
.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
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