जब खुद प्यासा है समन्दर तो क्या
अब धरती हुई जाती बंजर तो क्या।
खामोशी को ओढ़ो उदासी बिछाओ
गर अजनबी हो रहा मंजर तो क्या।
कुटिल मुस्कान भर कर अधरों पर
वो ही सीने में उतारे खंजर तो क्या।
जिसके जिक्र पर सजल होती आँखे
आज भी हूँ उसका मुंतजर तो क्या।
छोड़ के सब दुनियादारी और ऐयारी
अब बन ही जाऊँ मैं कलंदर तो क्या।
.................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल
मुंतज़र = जिसकी प्रतीक्षा की जा रही
ऐयारी = चालाकी
कलंदर = फ़कीर
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