Sunday, April 26, 2015

{ ३११ } धोखा पहले पाप था अब दस्तूर हो गया





धोखा पहले पाप था अब दस्तूर हो गया
आँख होते हुए अँधापन भरपूर हो गया।

बुरा भी है वोह पर छोड़ता कोई नहीं उसे
आमों-खास का आज वो ही नूर हो गया।

सिर झुका के किसी को खुदा बना लिया
दिखाकर चालाकियाँ वो मशहूर हो गया।

दिल की प्यास लिये चलते मुद्दत गुजरी
न बुझेगी प्यास दिल चकनाचूर हो गया।

हवाओं में विष घुला सावन भी रूठ गया
पीड़ा हुई संगनी जाने क्या कसूर हो गया।

........................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Friday, April 24, 2015

{ ३१० } मैं गुनहगार मुँसिफ़ है वो





दर्द, आह, आँसू की अब शिकायत नहीं
दर्द में मरहम लगाने की रवायत नही।

ये शीशा एक न एक दिन टूटना ही था
तमाम उम्र करेगा कोई हिफ़ाजत नहीं।

धोखा, फ़रेब, मक्कारियों से भरे कदम
सभी जानते हैं ये हमारी विरासत नहीं।

शायद मैं ही गुनहगार पर मुँसिफ़ है वो
अपने लिये की इंसाफ़ की हिमायत नहीं।

न कोई गिला रहा न कोई शिकवा उनसे
जब उनको ही हमसे कोई मोहब्बत नहीं।

.............................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


रवायत = प्रथा
मुँसिफ़ = न्याया धीश


Thursday, April 23, 2015

{ ३०९ } हर तीर के हम निशाने बने रहे





हर तीर के हम निशाने बने रहे
नाराजगियों के बहाने बने रहे।

रोज ही चुभता टुकड़ा शीशे का
दर्द सीने के वही पुराने बने रहे।

सिर-आँखों में जब तक रखा था
मोहब्बतों के ही जमाने बने रहे।

मुश्किल से ही अब मालूम हुआ
ठौर मेरा नहीं बे-ठिकाने बने रहे।

भेद-राग गाते हैं वो अपनेपन से
सुनकर भी हम अनजाने बने रहे।

.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, April 19, 2015

{ ३०८ } कलम में मुस्कानों की स्याही हो





दुनिया का कोलाहल हो या जंगल की तनहाई हो
पा ही लेंगे साहिल अपना चाहे जितनी गहराई हो।

संग तेरी दुआओं के बरसेगी रहमत रब की मुझपे
मिल ही जायेगी शोहरत चाहे जितनी ऊँचाई हो।

गर हो नजरिया खूबसूरत तो मिलती है इज्जत
बात करो जब भी कोई तुम उसमें बस दानाई हो।

मौसम के भी तेवर देखो पतझर हो या बसन्त बहार
बहती रहे मस्त पवन चाहे पछुआ हो या पुरवाई हो।

गीत लिखो, गज़ल लिखो या कि लिखो तुम रूबाई
लिखो जो भी कलम में बस मुस्कानों की स्याही हो।

........................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


दानाई = बुद्धिमानी

Thursday, April 16, 2015

{ ३०७ } बन ही जाऊँ कलंदर तो क्या





जब खुद प्यासा है समन्दर तो क्या
अब धरती हुई जाती बंजर तो क्या।

खामोशी को ओढ़ो उदासी बिछाओ
गर अजनबी हो रहा मंजर तो क्या।

कुटिल मुस्कान भर कर अधरों पर
वो ही सीने में उतारे खंजर तो क्या।

जिसके जिक्र पर सजल होती आँखे
आज भी हूँ उसका मुंतजर तो क्या।

छोड़ के सब दुनियादारी और ऐयारी
अब बन ही जाऊँ मैं कलंदर तो क्या।

.................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

मुंतज़र = जिसकी प्रतीक्षा की जा रही
ऐयारी = चालाकी
कलंदर = फ़कीर

Tuesday, April 14, 2015

{ ३०६ } बतलाओ हँस लूँ या रो लूँ





उम्र भर खामोश रहा अब अंजुमन से क्या बोलूँ
कोई दवा न देगा ऐसे में दिल के दर्द क्या खोलूँ।

हर हालात मे मुस्कुराने की आदत थी हमे कभी
अब दिल रहता उदास बतलाओ हँस लूँ या रो लूँ।

बेरुखी के खण्डहर में हरतरफ़ अँधेरा ही अँधेरा है
आस का चिराग जला कर प्यार को कहाँ टटोलूँ।

मोल हँसने का मुझे रो-रो कर अदा करना पड़ा
बताओ अपने कड़वे हरफ़ों मे कैसे मिठास घोलूँ।

मँझधार में हमको यूँ छोड़ कर जाने का शुक्रिया
मौका है कि अब मैं अपनी ताकत को भी तोलूँ।

................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, April 11, 2015

{ ३०५ } हम अपने साये से भी डरने लगे





हम अब अपने साये से भी डरने लगे
जब उनके भी चढ़े मुखौटे उतरने लगे।

पलकों को बन्द कर बैठता हूँ जब भी
साजिशों के घने अन्धेरे उभरने लगे।

फ़ूल गुलशन में हमारे हजारों थे मगर
मेरे चमन में खार ही खार सँवरने लगे।

जब कभी भी परवाज़ को उठाई है नज़र
फ़ैले हुए पँख वो हमारे ही कतरने लगे।

थम गई खिलखिलाहट टूट गई खुशियाँ
बे-दिली - बे-कसी मे दिन गुजरने लगे।

....................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

बे-दिली = उदासी
बे-कसी = दुःख