Wednesday, January 21, 2015

{ २९९ } दुख दर्द ही बचे मेरे मुकद्दर में





ये दुख दर्द ही बचे मेरे मुकद्दर में हैं
हो गया गम का बसेरा मेरे घर में है।

खुशियाँ भी पास आती तकल्लुफ़ से
मेरा मस्कन जो गहरे समन्दर में है।

किया भरोसा मैंने उस शख्स पर भी
जो रहता मेरे दुश्मन के लश्कर में है।

मैं वो पत्थर नहीं जो देवता बन सकूँ
मेरा ठिकाना हर पैर की ठोकर में है।

जिये जा रहा जीने की तमन्ना ले कर
शायद कुछ जान बाकी इस पिंजर में है।

...................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



मस्कन = रहने का स्थान

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