बन्द कमरे में
अकेले बीतती यह रातें
अब नहीं सही जाती।
शर्म के नाखूनों से
खुरची हुई दीवारें
कभी हम जीते
कभी तुम हारे,
कभी तुम जीते
कभी हम हारे
जैसी
गुदगुदाती मनुहारों की यादे
उस पर
घनघोर गरजते बादल
और बरसातें
अब नहीं सही जाती।
सिरहाने रखे दीपक का
बार-बार बुझाना
बदन को छूते ही छुई-मुई सा
सिहर-सिहर जाना
अँधियारे कमरे को
सुवासित गँध से महकाना
अब नही सहा जाता।
बन्द पलकों पर
सुधियों के
खींचे हुए ये चित्र
अब अकेले नहीं सहे जाते।
................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
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