Tuesday, May 20, 2014

{ २९१ } सुख का सागर है अन्तर में






क्या रक्खा इस काया नश्वर में
सुख का सागर है अन्तर में।।

बाहर जग की उष्मा, मरुथल का कोलाहल
बाहर पनपते हैं दँभ-द्वेष और छल-बल
मति-भ्रमित मानव जाने कहाँ भटका करता
बाह्य-रूप बदलता रहता पल में, प्रहर में।।१।।

क्या रक्खा इस काया नश्वर में
सुख का सागर है अन्तर में।।


तर्क हीन इस असत् सत्य में
नियति-नटी के विषम-नृत्य में
नाद-ताल-लय, गति विहीन हो गई
तट-भ्रान्ति समाहित लहर-लहर में।।२।।

क्या रक्खा इस काया नश्वर में
सुख का सागर है अन्तर में।।


संत्रासों के घन, अम्बर में घूम रहे
कुंठाओं के शीशमहल नभ को चूम रहे
बूढ़ी आशाएँ संशय के द्वार खड़ी
जीवन कैद हुआ जर्जर पिंजर में।।३।।

क्या रक्खा इस काया नश्वर में
सुख का सागर है अन्तर में।।


----------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

1 comment:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन जल ही जीवन है - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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