गुलों की ताजी कली वाला मँजर छोड दूँ, कैसे?
खुश्बुओं सँग खिलखिलाती सहर छोड दूँ, कैसे?
अभी ख्वाबों के महल में कुछ तलाश रहा हूँ मैं
ख्वाबों की खुश्बू से महका बिस्तर छोड दूँ, कैसे?
सब हमसे मिलते बहुत प्यार और मोहब्बत से
ये शरफ़, मोहब्बत, कद्रो-मर्तबा छोड दूँ, कैसे?
दर पे आती शबो-रोज गुलों को लिये रुत नई
तब भी अपना दिल यूँ ही बँजर छोड दूँ, कैसे?
जो लिये रहे पलकों पे मेरे अश्कों को हरदम
ऐसी आँखों को भला बेगानावर छोड दूँ, कैसे?
.................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल
सहर = सुबह
शरफ़ = प्रतिष्ठा
कद्रो-मर्तबा = मान-सम्मान
शबो-रोज़ = नित्य प्रति
बेगानावर = बेगाना
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