Monday, December 31, 2012

{ २२४ } मर-मरकर जीते रहते





देर हो या कि हो अँधेर, हम बस जीते रहते
मन ही मन रोते, विष पी-पीकर जीते रहते।

मर्यादा की बेडी और हया की हथकडियाँ हैं
बेबस इसाँ बन कर हम जीवन जीते रहते।

अँधे गहरे कूप तले छिप बैठा है अपना सुख
दुख की खाई में ही जीवन नैय्या खेते रहते।

मायावी दुनिया का मँच सजा है रँग-बिरँगा
सुख के लालच में कठपुतली बन जीते रहते।

सच्चाई की हार यहाँ पे, प्यार बना छलावा
दिल में दरार सजाये, मर-मरकर जीते रहते।


.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


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