Wednesday, December 26, 2012

{ २२१ } तसव्वुर से पुर तलावती रातें





खाक नींद आयेगी आँखों को, अगर दीदाए-बेदार होती है
आस्माँ में कभी चाँद-तारे या जुगुनुओं की कतार होती है।

लाज़िम है किसी पर खुशियाँ लुटाना, किसी पे जान देना
यूँ अकेले-अकेले तनहाई में कहाँ रँगीनिये बहार होती है।

हम डूबे हैं इश्क में, इश्क की गली से है वापसी मुश्किल
इश्क में सब्र करना मुश्किल, इश्क तो नौ-बहार होती है।

दिलबर के हुस्न के दिलकश नजारे हैं मेरे दिल पर छाये
तसव्वुर से पुर ये तलावती रातें बडी दिल-अज़ार होती हैं।

दिन में अपने ख्वाबों को लिये फ़िरते हम गलियों-गलियों
ये ढलती हुई शामती शामें मैखाने में ही पुर-खुमार होती है।

कभी भी आसाँ नही होता अपने दिलबर से दोस्ती रखना
आशनाई में अपनी सारी ज़िन्दगी ही निसारे-यार होती है।

जो आबाद कर सके किसी आशिक के इश्क की दुनिया
ऐसी गज़ल-ओ-सुखन की ही आशिक को दरकार होती है।


.................................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


दीदाये-बेदार = खुली हुई आँखे, जागना
रंगीनिये-बहार = बसन्त की शोभा
नौ-बहार = बसन्त ऋतु
तसव्वुर = कल्पना
पुर = भरा
तलावती = लम्बी
दिल-अजार = कष्टप्रद
शामती - बदकिस्मत
पुर-खुमार = नशे में चूर
निसारे-यार = प्रेमिका पर निछावर


No comments:

Post a Comment