किस अक्स को आइना तरसता है हमारा
दिन ढलते ही दिल डूबने लगता है हमारा।
कब समाँ दिखेगा ज़ख्मों के भर जाने का
बुरा वक्त जाने क्यों न गुजरता है हमारा।
अधूरी ख्वाहिशों का सिलसिला रह गया है
मँजिल से मुसल्सल फ़ासला रहा है हमारा।
शायद मैं ही सबब बना अपनी शिकस्त का
एहसासे-मसर्रत दर पे नहीं रुकता है हमारा।
हमसे उन सुहानी शामों का चर्चा न कीजिये
उन यादों से ही दिल डूबने लगता है हमारा।
-------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल
एहसासे-मसर्रत = सुख
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