Monday, September 3, 2012

{ १८८ } देश भी लजा गया





ये कैसा वक्त आ गया, देश भी लजा गया
बेतौर रँग-ढँग से लोकतँत्र चरमरा गया।

        इंसानियत है मर रही
        हैवानियत पसर रही
        हर तरफ़ लूटपाट है
        सूने बजार-हाट हैं
        रोटी को भूख रो रही
        संकट में आस खो रही
        चूल्हे नहीं जल रहे
        घरों में फ़ाँके पड रहे
ये कैसा वक्त आ गया, देश भी लजा गया
बेतौर रँग-ढँग से लोकतँत्र चरमरा गया।

        ये धर्म ही न मानते
        ईमान भी न जानते
        मिलावटो का दौर है
        हर मन में बसा चोर है
        शासकों की बुद्धि मँद है
        अपराधी फ़िर रहे स्वच्छंद हैं
        बाहोश होश खो रहे
        न हँस रहे न रो रहे
ये कैसा वक्त आ गया, देश भी लजा गया
बेतौर रँग-ढँग से लोकतँत्र चरमरा गया।


............................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


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