ये कैसा वक्त आ गया, देश भी लजा गया
बेतौर रँग-ढँग से लोकतँत्र चरमरा गया।
इंसानियत है मर रही
हैवानियत पसर रही
हर तरफ़ लूटपाट है
सूने बजार-हाट हैं
रोटी को भूख रो रही
संकट में आस खो रही
चूल्हे नहीं जल रहे
घरों में फ़ाँके पड रहे
ये कैसा वक्त आ गया, देश भी लजा गया
बेतौर रँग-ढँग से लोकतँत्र चरमरा गया।
ये धर्म ही न मानते
ईमान भी न जानते
मिलावटो का दौर है
हर मन में बसा चोर है
शासकों की बुद्धि मँद है
अपराधी फ़िर रहे स्वच्छंद हैं
बाहोश होश खो रहे
न हँस रहे न रो रहे
ये कैसा वक्त आ गया, देश भी लजा गया
बेतौर रँग-ढँग से लोकतँत्र चरमरा गया।
............................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल
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