Thursday, May 3, 2012

{ १५१ } इंसान का चेहरा




कहाँ खो जाता भीड में इंसान का चेहरा
हर उम्मीद और हर अरमान का चेहरा।

मुक्त बढने का अभी भी एहसास बाकी
क्यों दबाती हैं हवायें अरमान का चेहरा।

बढें भी तो कैसे बढें हम निर्भीक हो कर
यहाँ नोचती वासनायें इंसान का चेहरा।

दरवाजे भी बन्द कर बैठ गये अपने भी
झुकाता उनको सिर ये इंसान का चेहरा।

शबो-रोज ढलते हैं पैबन्दों को सीते-सीते
उमंग, रंगविहीन हुआ इंसान का चेहरा।


....................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


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