अपना था जो गिना नही, जो नही मिला दुखी भरपूर हो गये
पाने और खोने की इस दुविधा में, अपनों से हम दूर हो गये।
खुदगर्जी में ही रहे जीते, अब क्या होगा हासिल पछतावे से
अपनों को कर किनारे औरों के गम-खुशियों में चूर हो गये।
किसके आगे हम दुखडा रोंयें, मुझको ही सब मुजरिम माने
नजरों में सभी की गिर गये, अपनो के सितम मँजूर हो गये।
कुछ अपने भी हो गये गैरों जैसे, जख्म दिये हैं गहरे - गहरे
मरहम कितना काम करे जब अपनों से हम मजबूर हो गये।
उलझी पहेली बना अपना जीवन, मिसाल किसकी अपनायें
चमक सकी न अपनी किस्मत, सपने सब चकनाचूर हो गये।
.............................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल
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