सच्चाईयाँ गम उठा रही है
अब झूठ कदम बढा रही है।
ज़िन्दगी कहते हैं हम जिसे
वो मरने को छटपटा रही है।
अमरबेलें भी मुरझाने लगीं
उफ़ आ भीषण छटा रही है।
रात को सपने संजोये नींद
पर भोर सिटपिटा रही है।
मंजिलें और दूर खिसकती
अब रहगुजर मिटा रही है।
भूख से तबाह हुई बेचैनियाँ
तिनका-तिनका जुटा रही है।
.................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल
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