मेरी गिरफ़्त से मंजिल फ़िसलती रही
मुझसे तेज मेरी ज़िन्दगी चलती रही।
हर कहीं ढूँढा मिल सकी न एक झलक
दिल पर सिर्फ़ बिजलियाँ गिरती रहीं।
अब काँटों पर प्यार लुटाते जा रहे हैं हम
फ़ूल सी ये ज़िन्दगी खारों से भरती रही।
बेवफ़ा पर यकीं करता रहा अपना समझ
ताउम्र ज़िन्दगी गले हादसों के लगती रही।
देखते कुछ है, बयाँ कुछ और ही कर रही
ये ज़िन्दगी बस हकीकत से छुपती रही।
..................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
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