ज़िन्दगी में जाने कितना आँसुओं को पिया हमने
ज़िन्दगी को इकरामे-ज़िन्दगी सा कब जिया हमने।
कानों को झूठ सुनने की आदत हो चुकी है इसकदर
सच न कह दूँ इसलिये जुबाँ को ही सी लिया हमने।
न मंजिल है, न मंजिल की कोई दूर तक है उम्मीद
बस मंजिलों से ही इंतिहाई फ़ासला ही किया हमने।
हम अपनी मंजिलों से इस तरह बेखबर न हुए होते
खुद के साथ भी तो केवल खुदफ़रेब ही किया हमने।
ये किस अजीयत देह सी दुनिया में आ गये है हम
अपने हिस्से मे कितने इल्जामों को ले लिया हमने।
दरब हैं तो क्या दोस्त-दुश्मन सभी ने मुझको परखा
कसौटी पर इम्तिहान से कब किनारा किया हमने।
जहाँ में हर कोई अपना-अपना मुकद्दर ले के आया है
सभी लब मुस्कुरायें, गमों का पर्वत ले लिया हमने।
न जमीं का होश रहा, न आस्माँ की है मुझको खबर
गमों में ही गुम होकर सारी उम्र को बिता दिया हमने।
अब क्या बचा है जिसके सहारे जी सकें हम ज़िन्दगी
ख्वाब-तसव्वुरों को दुनियासाजी में बिखरा दिया हमने।
जीने की तमाम कोशिशों का आखिरी नतीजा यही हुआ
मरते हुए कुछ और मर गया, यही महसूस किया हमने।
................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
इकरामे-ज़िन्दगी=भगवान की दी ज़िन्दगी
इंतिहाई=लम्बा
खुद फ़रेब=खुद को धोखे मे रखना, आत्मवंचक
अजीयत देह=कष्टदायी
दरब=खरा सोना
दुनियासाजी=बनावटी बातें
Sunder, Arthpoorn Panktiyan
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