पाँखुरी
Saturday, October 15, 2022
{३७४ } लफ़्ज़ लफ़्ज़ कराह रहा
हिज़्र में उसकी जल रहे
प्राण हैं जैसे निकल रहे।
जो भटकते रहे उम्र भर
वो कदम नहीं सँभल रहे।
दर्द मुझसे कभी न दूर थे
आस-पास ही टहल रहे।
लफ़्ज़ लफ़्ज़ कराह रहा
दीदा-ए-नम मचल रहे।
उखड़ रही अब साँस भी
यूँ सिसकियों में पल रहे।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
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