कँगूरों पर जब शाम उतर आती है
ये बूढ़ा मन काँपने सा लगता है......।
खुशियों के चमन के फूलों की पाँखेँ
काँटों से सजी सेज हो जाती है......
पोर-पोर तक थक कर चूर हुए दिन की
उखड़ती साँसें तेज हो जाती हैं......
अम्बर को भेदते शिखरों का मस्त राही
रपटीली ढ़ालों पर हाफने सा लगता है......।
कँगूरों पर जब शाम उतर आती है
ये बूढ़ा मन काँपने सा लगता है......।।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
कँगूरों पर जब शाम उतर आती है
ReplyDeleteये बूढ़ा मन काँपने सा लगता है.
-सत्य कथन
सुन्दर रचना
उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत आभार आपका
Deleteसुंदर सृजन
ReplyDeleteउत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत आभार आपका
Deleteसराहनीय सृजन।
ReplyDeleteउत्साहवर्धन के लिए आपका बहुत बहुत आभार
Deleteवाह.....अप्रतिम सृजन
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