वही एकान्त का उपवन
वही पेड़ की शाखा
स्मृतियों में उभरती वही छाया
यहीं पर उगा था
हमारे-तुम्हारे प्रीत का चाँद।
पर, यहाँ का एकान्त
अब हमारा स्वागत नहीं करता
और न ही करता है हमारा इन्तजार
फ़िर भी मैं
आता हूँ यहाँ बार-बार।
कि शायद कभी कोई फ़ागुनी बयार
पातों पर चढ़े पीत रँग को उतार फ़ेंके
और सूखी डालियों में
हरियाए कुछ अपनापन,
जो अलसाई हुई दोपहर में
तुम्हारी बाहों में गुजरती थी,
चिहुँक उठते थे हम
जब चहचहाते हुए पक्षी
अपने घरौन्दों को लौटते
पर हम तब भी होते थे
तुम्हारी बाहों के आगोश में।
पर, शायद अब
न वो शाम होगी
जब द्वार से चिपके तुम
बिदा देते थे मुझे
फ़िर से आने का आमन्त्रण लिये
अपनी भीनी-भीनी, मन्द-मन्द
मुस्कुराहट के साथ।
काश ! कि पात से हट सके पीत रँग
और झूम-झूम झूमे हरियाली
मन्द-मन्द सुगन्धित बयार सँग,
सम्मोहित सा मैं
कसकर समेट लूँ
तुम्हे अपनी भुजाओं में
काश कि.....................।
काश कि....................॥
.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
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