सुन्दर लहजा, मीठे बोल, अनोखी बातें
आज नहीं तो कल हों शायद।
हर सिम्त उसकी ही जलवासाजी
आज नहीं तो कल हो शायद।
हर महफ़िल में उसके हुस्न के जलवे
आज नहीं तो कल हो शायद।
फ़िज़ा में खुलूसे-बूए-गुल
आज नहीं तो कल हो शायद।
उसके सर्द दिल में तपिश
आज नहीं तो कल हो शायद।
मिट जाये उसके-मेरे दर्मियाँ का फ़र्क
आज नहीं तो कल हो शायद।
मेरी गज़ल उड़ा दे उनकी रातों की नींद
आज नहीं तो कल हो शायद।
.................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल
सिम्त = तरफ़
जलवासाजी = सौन्दर्यपूर्ण उपस्थिति
फ़िज़ा = वातावरण
खुलूसे-बूए-गुल = आत्मीयता के फ़ूल की सुगन्ध
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ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " बर्फ से शहर के लिए " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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