लाख मशक्कत कर ली पर कुछ न हासिल है
न अपना समन्दर है न कोई अपना साहिल है।
वफ़ा के नाम पे खेलता है आशिक के दिल से
वो किसी का महबूब नही इश्क का कातिल है।
दरिया-ए-जीस्त में बहते कई किनारे देख चुके
पर मिलता नहीं कहीं ज़िन्दगी का साहिल है।
आसमाँ में छाया है हर तरफ़ गम का अन्धेरा
शायद फ़िर जला किसी आशिक का दिल है।
भूलना ही होगा दर्द दिल के ज़ख्मी होने का
मेरा महबूब ही मेरे मासूम दिल का कातिल है।
...................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, कहीं ई-बुक आपकी नींद तो नहीं चुरा रहे - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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