Sunday, August 11, 2013

{ २७३ } दर्द के तरन्नुम में हम गीत गुनगुनाते हैं





दर्द के तरन्नुम में हम गीत गुनगुनाते हैं।

हो चुके हैं अब वो खंडहर
सपनों में सँजोये थे जो घर
लेके उड़ता हूँ नये-नये पर
और ऊँचे हो जाते हैं अम्बर
चाँद-सितारों की बस्ती में हम ऐसे आते-जाते हैं।
दर्द के तरन्नुम में हम गीत गुनगुनाते है।।१।।

छा गया हरतरफ़ अँधेरा है
यादों ने आ कर फ़िर घेरा है
न सूरज अपना न सबेरा है
सबने अपना मुँह फ़ेरा है
तारे भी हमसे छुपकर अँधेरों में गुम हो जाते हैं।
दर्द के तरन्नुम में हम गीत गुनगुनाते है।।२।।

जग ने की जब क्रूर निगाही
हुई तब ही प्रीति की तबाही
अश्क टपके बन कर स्याही
गम हुआ अपना हमराही
भग्न हृदय वाले ऐसे ही गीत लिख पाते हैं।
दर्द के तरन्नुम में हम गीत गुनगुनाते हैं।।३।।

---------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

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