आदमी की रूह जितनी मजबूर है
अक्ल उसकी उतनी ही मगरूर है।
हर आदमी तिनका सा ही लगता
आदमी का कैसा दिमागी फ़ितूर है।
वक्त की मार से नाचता फ़िरता है
आदमी भी कितना हुआ मजबूर है।
फ़ाकाकशी लफ़्ज़ों से बयाँ न होती
भूख ने चेहरे को कर दिया बेनूर है।
उदासियाँ बन चुकी ज़ीस्त की साथी
फ़िर भी ज़िन्दगी पर सबको गुरूर है।
-------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल
आपको यह बताते हुए हर्ष हो रहा है के आपकी यह विशेष रचना को आदर प्रदान करने हेतु हमने इसे आज (सोमवार, १० जून, २०१३) के ब्लॉग बुलेटिन - दूरदर्शी पर स्थान दिया है | बहुत बहुत बधाई |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.बहुत बढ़िया लिखा है .शुभकामनायें आपको .
ReplyDelete