मैनें सुनी है सन्नाटों में गूँज
अपने दिल की गहराइयों में
जहाँ से कोई गुजर कर भी
न गुजरा कोई...................
अपना चेहरा आइने में देख
घबरा कर गुल कर देती हूँ
चिराग............................
कभी-कभी एक आहट
थपकी देती है मुझे
चौकन्ना करती है मुझे......
दो आँखें
खुली हुई
मेरे ही आइने से
मुझे ताकती है
मुझे घूरती हैं
शायद मुझे पहचानने की
कोशिश करती हैं..............
और मैं
अँधकार युक्त सन्नाटे में
खुद को खुद में
समेट कर
छुप जाती हूँ
अपने हृदय की
गहराइयों में..................
ताकि
कोई मुझे जान न ले
कोई मुझे पहचान न ले......
और मैं
अपने नीरव मे
खोई रहूँ...................।
डूबी रहूँ....................।।
---------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल
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