जर्जर माँ भारती की धरती,
रक्त सा उबलता गगन,
उफ़ना रहा समुद्र जल।
नहीं हो रहा कहीं भी
नव-निर्माण का आभास
माँ भारती की कोख में
नही हो रहा कहीं भी
सृजन-शीलता का निवास।
मानव ’वादों’ के सीखचों में
अधमरा बन्दी पडा है
तडप रहा, घिसट रहा
आखिरी साँसें ले रहा है।
जल-थल-नभ में छाया घोर अँधकार
कण-कण में छहराया दूषित विकार
दिगदिगन्त में हहराया हाहाकार।
दूषित हो गया वातावरण
बन्द है सारी वातायन
अविराम मात्र अतिक्रमण।
अब कोई यहाँ उभर कर आये
शिव के पावन त्रिशूल सम
भारत की धरती के दलदल पर
खिले लक्ष्मी-प्रिय फ़ूल सम।
गगन चुम्बी पर्वतों को तलुओं तले दबा
सागर की गहराइयों को कन्धे पर उठा
गगन के विस्तार को बाहों में समेटे
उमड पडे मूर्छित भारत को जगाने
भारत के जीवन की ज्योति को जलाने।
रख रूप विकराल.............
आओ-आओ महाकाल !!!
आओ-आओ महाकाल !!!
------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल
वातायन = खिडकी
No comments:
Post a Comment