Wednesday, June 6, 2012

{ १८० } जीवन और मृत्यु





खोखला जिस्म
उखडती साँसें
पर फ़िर भी
रुक-रुक कर
चलने की चाह जिन्दा है
शायद इसलिये
हर उम्र अपनी
पीढी को ढो रही है।

कदम लडखडाते हैं
और संभलते हैं,
उम्र ढल रही है पर
सूरज अभी तक नही ढला है।

सीने से लिपटी हुई
तमाम खुशियाँ
दम तोड देती है,
हर आस रेत सी
हाथ से फ़िसल जाती है।

जीवन की गरमी
और
मौत की ठंडक
दोनो क्षितिज के पास
जब मिलती हैं
तब गले से लग
हैरान होकर ज़िन्दगी
पूछती है मौत से,
ऐ मौत ! तू पहले क्यों न मिली,
क्यों मिली थी ज़िन्दगी ?

मौत कहती है,
ऐ ज़िन्दगी !
ढल गई उम्र तेरी
पर ढला न था सूरज तेरा।

चलो छोडो ये गिले-शिकवे
हम दोनो
यथार्थ हैं।

हम हैं
जीवन और मृत्यु।
मृत्यु और जीवन।।


........................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


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