Sunday, June 3, 2012

{ १७८ } सितमगर





है अफ़सोस, ये कैसा मेरा मुकद्दर निकला
चला जो राह वो गम की रहगुजर निकला।

हर वक्त आँखों में रहा मोहब्बत का जुनूँ
उफ़, दिलबर मेरा दिल का पत्थर निकला।

उजाड बस्ती के जैसा मंजर हुआ दिल मेरा
तेरा खयाल भी तुम सा सितमगर निकला।

सफ़र-ए-हयात में तनहाई ही मेरा साथी है
दिल ने चाहा जिसे वो जाँआजार निकला।

गौरो-फ़िक्र की फ़ुरसत नही सितमगर को
कि उसके ख्वाबों से मैं क्यों कर निकला।

यूँ तो मैं शख्स हूँ बहुत ही रंगीन मिजाज
मेरा दर्द मेरी सुखनों में उभर कर निकला।


......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



जाँआजार = सताने वाला
गौरो-फ़िक्र = सोच-विचार
सुखन = गजल, गीत



1 comment: