हुस्न के अक्स को आइना तरसता है हमारा
दिन ढलते ही दिल डूबने सा लगता है हमारा।
कब समाँ देखेंगे, दिले-जख्म के भर जाने का
बुरा वक्त गुजरने को नही मचलता है हमारा।
आधी-अधूरी ख्वाहिशों का सिलसिला रह गया
मंजिलों से हर वक्त फ़ासला रहता है हमारा।
मैं ही सबब था शायद अपनी इस शिकस्त का
एहसासे-मसर्रत दर पे नहीं रुकता है हमारा।
हमसे उन बीती हुई शामों का चर्चा न कीजिये
एहसास नही है आपको, दिल डूबता है हमारा।
........................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल
एहसासे मसर्रत = खुशी
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