मुझको तडपा कर तुम कभी न सुकूँ पाओगी
मैं परवाना, तुम शमा, मुझको यूँ जलाओगी।
मेरे अश्कों के सैलाब में, तुम यूँ डूबती जाओगी
दर्द-ए-ज़िन्दगी का किनारा फ़िर पा न पाओगी।
सितम करते हो मेरे हमदम, हमारी चाहतों पर
अपने दिल पे मेरी दस्तक को कैसे बिसराओगी।
मुद्दत से कर रहा हूँ तनहाइयों में तेरा इन्तजार
मेरे इश्क का पैगाम कब तक खुद से छुपाओगी।
तस्लीम तो कर ही लेंगे आप मेरा प्यार, मगर
कब शिकवे भुलाकर दस्ते-रिफ़ाकत बढाओगी।
......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
दस्ते-रिफ़ाकत = दोस्ती का हाथ
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