आदमी हूँ, पर आदमी होना कोई मजाक नही है
सच है इससे ज्यादा कुछ और दर्दनाक नही है।
रोज-ब-रोज पीना ही है हमको खून के ही आँसू
दिखाना है जमाने को कि ये जिगर चाक नही है।
झील में कफ़ासत और आँख में आँसू की तरह
दर्द है दिल का अलंकार, क्या यह मजाक नही है?
मंजिलें हैं अभी बहुत दूर, रास्ते सभी धुँधला गये
पग-पग गिरे बिजली, क्या राह शोलानाक नही है?
जख्म यादों के हरे हो जब-तब टीसते से रहते है
दर्द की बेचैनियों मे अश्कों की कोई फ़िराक नही है।
ज़िन्दगी कम, काम ज्यादा, मौत मोहलत दे न दे
लडना है खुद से ही, पर हाथ में कोई यराक नही है।
.......................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
चाक=कटा हुआ
कफ़ासत=काई, गंदगी
शोलानाक=अंगारों से भरा
फ़िराक=खयाल
यराक=अस्त्र-शस्त्र
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