Monday, June 6, 2011

{ ४१ } मजबूर ज़िंदगी







हम को अब ये जुल्म सहने की आदत हो गयी है,

चुपचाप दर्दो-गम सह लेने की आदत हो गयी है|


अपनी ज़िंदगी एक लाश सी ढो रहे हैं इस दौर में,

इन वहशी दरिंदों को सहने की आदत हो गयी है|


चाँद-तारों पर हुकूमत की तमन्ना भी बुझ चुकी,

जमीं पर बिछी लाशें गिनने की आदत हो गयी है।


आइना भी डरता देख कर इन जालिमों का चेहरा,

इन दरिंदों को सिजदा करने की आदत हो गयी है|


मर चुके पूरी तरह से, रूह भी मर चुकी है हमारी,

सर झुका कर सहने-जीने की आदत हो गयी है|


मत झकझोरो हमें, रगों का खून पानी हो चुका है,

मुक्कदर समझ भुला देने की आदत हो गयी है|



.................................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


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