ईंट की दीवार,
कंक्रीट की छत,
लकडी के दरवाजे,
लोहे की खिडकी,
इन सबको मिला कर
बनाया गया
एक ढाँचा।
यह ढाँचा ही
क्या घर है?
या फ़िर........
कुछ पुरुष,
कुछ स्त्रियाँ,
कुछ बच्चे,
सुबह-शाम पूजा की घन्टी,
पुरुषों की आवाजें,
स्त्रियों की चूडियों की खनखनाहट,
बच्चों के हुडदंग,
बर्तनों की खटपट,
किताबों के पन्नों की खडखडाहट,
आपस के सुख-दुख,
आपस की कुनकुनाहट,
आपस का रूठना
और
आपस का मनाना,
सुबह से शाम तक
काम में खटना,
शाम को
पुरुषों की वापसी तक,
द्वार का तकना,
और, रात्रि को
अविघात विश्राम।
हाँ,
यह एक घर है,
और
वह एक ढाँचा॥
........................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
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