बोलो न, अब कैसे मैं आ जाऊँ होश में,
मेरी ज़िन्दगी तो है तेरे ही आगोश में।
तन-बदन से बेखबर, तबीयत बेहाल है
किस्मत मेरी, हो गया तेरा हमगोश मैं।
बात अपने सीने में अब तक दबा रखी है
अब कैसे बताऊँ कि हूँ तेरा वफ़ाकोश मैं।
तेरे लबों की मुस्कान करे कुछ तो इशारा
भर जायें अल्फ़ाज़े-इश्क, लबे खामोश में।
देखूँ जब भी तुम्हे रहती है तमन्ना ये ही
कैसे ले लूँ तुम्हे अपने हल्कए-आगोश में।
................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल
हमगोश = पडोसी
वफ़ाकोश = प्रेमी
अल्फ़ाज़े-इश्क = प्रेम भरे शब्द
हल्कये-आगोश = भुजपाश
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