यहाँ की रौनकें अब अपने लिये तो रही नही, चलो कहीं और चलें,
यहाँ फ़ागुनी बयार नहीं, पतझर का मौसम है, चलो कहीं और चलें।
इस मतलबी जहाँ में तो सभी है अपनी पाक-मोहब्बत के ही दुश्मन,
अरे ! चलो छोडो इस मतलबी जहाँ को, आओ चलो कहीं और चलें।
ये जमीं भीगी है गम की आँखों के आँसुओं से, बेबसी की इन्तिहा है,
ये जंगल है बबूलों का यहां कोई गुलशन नही, चलो कहीं और चलें।
हम अंजुमनआरा हुआ करते थे कभी उनकी सजाई हुई महफ़िलों के,
अब मिलना तो दूर मिलने की आरजू भी नही, चलो कहीं और चलें।
इस जहाँ में मोहब्बत नही मेला है, किसी को किसी से क्या लेना देना,
दिन ढलते हर शख्स अपनी-अपनी राहों पे होगा, चलो कहीं और चलें।
ये कैसा शहर है, न धुआँ है, न शोला है, न मंजिल ही है, न ही है रास्ता,
न कहीं भी छाँव दिखाई देती, पूरे शहर में अंधेरा है, चलो कहीं और चलें।
आसमान अभी भी काला नही, चाँदनी से अभी कुछ-कुछ उजाला बाक़ी है,
अभी पहुँच ही जायेंगे अपने ख्वाबों की मंजिल तक, चलो कहीं और चलें।
अपनी मोहब्बत का खजाना तो लुट चुका कैसे हम दिल की हिफ़ाजत करें,
अपनी आँखों से ख्वाबों को जुदा करके, ऐ ज़िन्दगी ! चलो कहीं और चलें।
........................................................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल
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