अक्सर सुनता था
बडे, बूढे और बुजुर्गों से
कि,
’वह जमाना कुछ और था’
या फ़िर
’बीते हुए जमाने की बात ही कुछ और थी।’
तब इन बातों का अर्थ
तो समझ में आता था,
परन्तु भाव को समझने में नाकाम था।
पर, अब
कुछ-कुछ भाव को भी
समझने लगा हूँ।
या यूँ कहूँ
कि भाव के आघात को
महसूस करने लगा हूँ।
नयी पीढी की
अन्धी दौड
और
अनुभव हीन सभ्यता के थपेडे
पीढियों के फ़र्क का
आभास करवा ही देते हैं,
और पिछली पीढी
टीस से भर कर कहती है, कि
’वह जमाना कुछ और था।’
............................. गोपाल कृष्ण शुक्ल
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