फ़ैलाया कहाँ तक जाल।
सूखते ही जा रहे हैं क्यों
सब झील नदी और ताल।
परिन्दे को पता ही नहीं
बिगड़ी नियति की चाल।
कु्छ चँद निवालों के लिये
उसकी ही खिंचेगी खाल।
फ़िर उड़ेगा या कि मरेगा
बड़ा ही कठिन है सवाल।
पिंजरे में हुआ बन्द नसीब
जीस्त का नहीं पुरसाहाल।
वाह रे मालिक ! तेरी वाह
ज़िन्दगी दी है बड़ी कमाल।
................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल