Thursday, January 7, 2016

{ ३२१ } लदा काँधों पे अपना सलीब





लगने लगे हैं वो चेहरे कितने अजीब
भूलूँ कैसे उन्हे जो थे दिल के करीब।

फ़िसल गया पहलू से वो हसीं लम्हा
जुड़ा था तार जिससे जो था  नसीब।

कौन है सहारा इस मतलबी जहाँ में
लदा है काँधों पे खुद अपना सलीब।

इश्क का फ़लसफ़ा समझेंगे वो कैसे
जानते नहीं उसे निभाने की तहजीब।

न उठना पड़ॆ कभी तल्खियों के सँग
महफ़िल में बना ले कुछ अपने हबीब।

.......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल