दुनिया एक रँगमँच है
और हम सभी शरीरधारी
जीवन रूपी नाटक के पात्र,
नाटक है तो किरदार को
मुखौटा तो धारण करना ही होगा।
दुनिया के रँगमँच में
हम कठपुतली सम अभिनेता
तरह-तरह के मुखौटे लगा
भाँति-भाँति के अभिनय दिखा
साबित करते हैं खुद को सर्वश्रेष्ठ
पर जब कभी भी
खुद से बेहतर अभिनेता
हमसे बेहतर अभिनय दिखा जाता है
तब हम कुँठाग्रस्त हो
दोष देते हैं अपने मुखौटे को
यह भूल कर कि
दुनियावी रँगमँच के
हम सिर्फ़ अभिनेता है
न कि रँगमँच के सँचालक।
न कि रँगमँच के सँचालक।।
.......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल