Saturday, January 31, 2015

{ ३०० } प्रलय की भूमिका






निर्माण जिसे तू कहता फ़िरता
मूरख ! वह भूमिका तो प्रलय की है.............
अपनी सुविधा में लगे हुए चिल्लाते हो
कहते ये माँग आज के समय की है.............
वंचक हो जायें शासक तो समझ लो
उन्नति हुई चहुँओर सिर्फ़ अनय की है..........
कथनी में त्याग-स्नेह है लेकिन
करनी में छाप लगी संचय की है.................
हो जाओ खबरदार घिरने को उठी
चहुँओर घनघोर घटा क्षय की है..............
निर्माण जिसे तू कहता फ़िरता
मूरख ! वह भूमिका तो प्रलय की है।।


........................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Wednesday, January 21, 2015

{ २९९ } दुख दर्द ही बचे मेरे मुकद्दर में





ये दुख दर्द ही बचे मेरे मुकद्दर में हैं
हो गया गम का बसेरा मेरे घर में है।

खुशियाँ भी पास आती तकल्लुफ़ से
मेरा मस्कन जो गहरे समन्दर में है।

किया भरोसा मैंने उस शख्स पर भी
जो रहता मेरे दुश्मन के लश्कर में है।

मैं वो पत्थर नहीं जो देवता बन सकूँ
मेरा ठिकाना हर पैर की ठोकर में है।

जिये जा रहा जीने की तमन्ना ले कर
शायद कुछ जान बाकी इस पिंजर में है।

...................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



मस्कन = रहने का स्थान

Saturday, January 10, 2015

{ २९८ } पर, प्रियतम तुम कभी न आये





पर, प्रियतम तुम कभी न आये।

स्मृति पट पर अब तक मैंनें
जाने कितने ही चित्र बनाये,
कितनी बार नयन के घन से
पीड़ा के अँकुर सरसाये।
पर, प्रियतम तुम कभी न आये।।१।।

मेरे उर की विकल वेदना
प्रियतम तुम समझ न पाये,
मेरे मौन रुदन की भाषा
सुन कर भी जान न पाये।
पर, प्रियतम तुम कभी न आये।।२।।

कितनी बार पपीहे के स्वर में
मैंनें विरह के गीत दोहराये,
कोई दिन गया न ऐसा जब
हमने आशा-दीप नहीं जलाये।
पर, प्रियतम तुम कभी न आये।।३।।

.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, January 5, 2015

{ २९७ } बूढ़ा मन काँपने सा लगता है





कँगूरों पर जब शाम उतर आती है
ये बूढ़ा मन काँपने सा लगता है.........।

खुशियों के चमन के फ़ूलों की पाँखे
काँटों से सजी सेज हो जाती है.........
पोर-पोर तक थक कर चूर हुए दिन की
उखड़ती हुई साँसे तेज हो जाती हैं........
अम्बर को भेदते शिखरों का मस्त राही
रपटीली ढ़ालों पर हाँफ़ने सा लगता है.......।

कँगूरों पर जब शाम उतर आती है
ये बूढ़ा मन काँपने सा लगता है...........।।

................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, January 4, 2015

{ २९६ } मोहब्बत की गहराइयाँ





मोहब्बत में छिपी गहराइयाँ देखो
झूठ मे दफ़न हुई सच्चाइयाँ देखो।

दिल की दहकती आग दबती नहीं
नकाब में छिपी रुसवाइयाँ देखो।

खामोश रात, बोझिल चाँदनी में
मेरे आँगन की तनहाइयाँ देखों।

मेरे गमों का तुमको गुमान नहीं
आहों से बजती शहनाइयाँ देखो।

 है मेरी मोहब्बत का ये निशान
अपने पीछे मेरी परछाइयाँ देखो।

............................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल