Saturday, August 3, 2013

{ २७१ } मत इतना इतराओ साथी





आस के सूने आँगन में न वो पल आयेगा
वक्त हमें नर्म निवालों सा निगल जायेगा।

मत अपने ही ऊपर इतना इतराओ साथी
उगा हुआ यह चाँद सुबह तक ढ़ल जायेगा।

अहंकार तो बस एक बर्फ़ का टुकड़ा भर है
क्षण भर बाद जो स्वयं ही गल जायेगा।

माटी मोल न होगा चाँद वक्त के अर्श पर
बुझा हुआ दीप जब किसी का जल जायेगा।

खारजारों की भीड़ लगी हो हरतरफ़ भले ही
गुल की आँख की उदासी देख दहल जायेगा।

जानता हूँ खारे समन्दर सा बीता है समय
पर कल हमारा मीठे जल सा बदल जायेगा।


---------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

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