Wednesday, August 14, 2013

{ २७५ } मोहब्बत का मुकद्दर





दिल को बहलाने की अच्छी तदबीर है
वो नहीं न सही, साथ उसकी तस्वीर है।

उसके चेहरे की चमक रहती कुछ ऐसी
जैसे चाँद की चाँदनी उसकी जागीर है।

उसका प्यार मेरे लिये है हसीन ख्वाब
इस ख्वाब में ही जीना मेरी तकदीर है।

शायद कम न होगा दिलों का फ़ासला
हाथों मे छपी नहीं मिलन की लकीर है।

मेरी मोहब्बत का है मुकद्दर कुछ ऐसा
इश्क ने उठा रखी हाथों में शमशीर है।


.............................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


Tuesday, August 13, 2013

{ २७४ } मैं कौन हूँ?





मालूम न हुआ मुझको कि मैं कौन हूँ?
हवाओं के गूँजते शोर में खड़ा मौन हूँ।

उमड़ती भावनाये, काँपती कामनायें
मन की कहने में सँकोच खड़ा मौन हूँ।

टूटे हुए सपनों की किरचें हैं चुभ रही
बन्द कर ली नम आँखें खड़ा मौन हूँ।

अनगिन देवालय में भाल झुका आया
मिल पाया न कहीं चैन खड़ा मौन हूँ।

रोशनी की खोज में मुझे मिला अँधेरा
हो अचँभित उपलब्धि पे खड़ा मौन हूँ।


........................................................गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, August 11, 2013

{ २७३ } दर्द के तरन्नुम में हम गीत गुनगुनाते हैं





दर्द के तरन्नुम में हम गीत गुनगुनाते हैं।

हो चुके हैं अब वो खंडहर
सपनों में सँजोये थे जो घर
लेके उड़ता हूँ नये-नये पर
और ऊँचे हो जाते हैं अम्बर
चाँद-सितारों की बस्ती में हम ऐसे आते-जाते हैं।
दर्द के तरन्नुम में हम गीत गुनगुनाते है।।१।।

छा गया हरतरफ़ अँधेरा है
यादों ने आ कर फ़िर घेरा है
न सूरज अपना न सबेरा है
सबने अपना मुँह फ़ेरा है
तारे भी हमसे छुपकर अँधेरों में गुम हो जाते हैं।
दर्द के तरन्नुम में हम गीत गुनगुनाते है।।२।।

जग ने की जब क्रूर निगाही
हुई तब ही प्रीति की तबाही
अश्क टपके बन कर स्याही
गम हुआ अपना हमराही
भग्न हृदय वाले ऐसे ही गीत लिख पाते हैं।
दर्द के तरन्नुम में हम गीत गुनगुनाते हैं।।३।।

---------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, August 8, 2013

{ २७२ } दफ़न हुई आत्मा





परमात्मा ने मनुष्य को दिये हैं
कई रतन,
आत्मा, बुद्धि, तन और मन।

बुद्धि ने सिखलाया
जीवन जीने का ढ़ँग,
बुद्धि ने उपजाये
मनुष्य की विलासिता के साधन,
बुद्धि ने ही किये
अनेकानेक आविष्कार,
बुद्धि ने ही खोजा
दूसरों पर करना अधिकार,
मनुष्य को लगता है कि जैसे
उसने पा लिया है सारा संसार।

परिणाम में मनुष्य की
प्रखर हुई बुद्धि,
पुष्ट हुआ तन,
प्रमुदित हुआ मन,

परन्तु
खोज की इस होड़ में
मनुष्य की आत्मा
कहीं हो गयी दफ़न।
मनुष्य की आत्मा
कहीं हो गयी दफ़न।।

---------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, August 3, 2013

{ २७१ } मत इतना इतराओ साथी





आस के सूने आँगन में न वो पल आयेगा
वक्त हमें नर्म निवालों सा निगल जायेगा।

मत अपने ही ऊपर इतना इतराओ साथी
उगा हुआ यह चाँद सुबह तक ढ़ल जायेगा।

अहंकार तो बस एक बर्फ़ का टुकड़ा भर है
क्षण भर बाद जो स्वयं ही गल जायेगा।

माटी मोल न होगा चाँद वक्त के अर्श पर
बुझा हुआ दीप जब किसी का जल जायेगा।

खारजारों की भीड़ लगी हो हरतरफ़ भले ही
गुल की आँख की उदासी देख दहल जायेगा।

जानता हूँ खारे समन्दर सा बीता है समय
पर कल हमारा मीठे जल सा बदल जायेगा।


---------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल