Tuesday, July 19, 2011

{ ४७ } बेचारों से हम








कब तक चुप रहेंगे बेचारों से हम,

त्रस्त कब तक रहेंगे अजारों से हम|


आग जंगल की तरफ़ अब बढ रही,

दूर कब तक रहेंगे अँगारों से हम।


दर्द से बोझिल हो गई अब ज़िन्दगी,

प्यार कब तक करेंगे गुबारों से हम।


गिर रही बिजलियाँ आशियाँ जल रहे,

छुपते कब तक रहेगे मक्कारों से हम|


तेज है सैलाब और दरके हुए बाँध है,

और कब तक थमेंगे कगारों से हम।


दोस्ती है गिध्द से जो नोचती ज़िन्दगी,

और कब तक दबेंगे अत्याचारों से हम।



................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



(अजार = रोग)



Friday, July 15, 2011

{ ४६ } जरूरत है







रक्त में जमी हुई बर्फ़ को पिघलाने की जरूरत है,

चूर-चूर हुए हृदय को जरा सहलाने की जरूरत है।


कश्ती बह रही है दरिया मे मेरी पर है लक्ष्य-हीन,

आकर उसे थोडी सी दिशा दिखलाने की जरूरत है।


खता कुछ भी नही है पर फ़िर भी सजा पाई मैने,

आकर अब थोडा सा मुझे फ़ुसलाने की जरूरत है।


अँधियारी रात है और जंगल-बियाबान की राहे है,

अब कोई रोशनी का दिया दिखलाने की जरूरत है।


कर सकूं बाते चैन से और बेफ़िक्र होकर आप से,

बस थोडा सा आपको भी मुस्कुराने की जरूरत है।


आपसे दिल मिलेगा, बात बनेगी और रौनक रहेगी,

बस थोडा सा मेरे और करीब आ जाने की जरूरत है।


जाम पर जाम चलते ही रहे अब तो ऐसी ही शाम हो,

बस एक ऐसी रंगीन महफ़िल सजाने की जरूरत है।।



......................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



Monday, July 11, 2011

{ ४५ } दुर्दशा





गाँधी तुम तो कहते थे

कि भारत में फ़िर से

राम-राज्य स्थापित करेंगे..?


क्या यही राम-राज्य है....?


गाँधी कहाँ है तुम्हारी लाठी...?


शायद,

उसी को टेक कर ही

चल रही है बिगडी दिमाग वाली

भ्रष्टाचारी, निरंकुश, रक्त-पिपासु,

संवेदनहीन, डगमाती सत्ता ।


गाँधी कहाँ है तुम्हारी चप्पल...?


शायद,

सत्ताधीशों के

कठोर हाथों द्वारा

अब गरीबों की चाँद गंजी

करने के काम आ रही है ।


गाँधी कहाँ है तुम्हारी घडी.....?


शायद वो भी,

विशिष्टता को खोये हुए

भारत देश की नब्ज की तरह

कहीं पर बन्द पडी हुई है ।


गाँधी कहाँ है तुम्हारे तीन बन्दर....?


हाँ ! सिर्फ़ वो ही,

आज भी भारत को धरातल मे

ढकेलने के कार्य मे सलग्न है,

सिर्फ़ वो ही,

भारत की जनता को अक्षम

बनाने के लिये आज भी

निरन्तन अपना उपदेश दे रहे है---


" देखो मत ! सुनो मत ! बोलो मत ! "


वाह गाँधी, तुम तो चले गये

पर प्रतिबिंबों के द्वारा

भारत को रसातल मे

पहुंचाने से नही चूके ।।


................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल



(महाकवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक रचना की कुछ पंक्तियॊ से प्रभावित हो कर यह रचना लिखी है)

Friday, July 8, 2011

{ ४४ } जख्म








जिन्दगी में जख्म ऐसे-ऐसे दिल में हुआ करते है,

रिसते रहते है जख्म दिल फिर भी दुआ करते है |


गमों में घुटती साँसे, हरतरफ अँधेरा हवा बेरहम,

सब कुछ बदल गया, हम सिर्फ दर्द सहा करते हैं|


अपनी पलकों पर बैठाया है मैंने जिसको रात-दिन,

बेवजह मुझको अपनो में ही बदनाम किया करते है|


जिन्दगी ने दी तनहाई-रुसवाइयाँ बख्शीश में मुझे,

इस जहर-ए-जाम को हम हँस कर पिया करते है|


हर खुशी, तमन्ना मेरे गमे-दिल की पूरी हो न हो,

उजड़े हुए गुलिस्ताँ को महकने की दुआ करते है|


जज्बाए-इश्क, आरजूए-खुशी जीने की सदा देता है,

ऐ खुदा यह दुआ हो क़ुबूल हम यह ही दुआ करते है|



............................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल