Tuesday, December 27, 2011

{ ७४ } आदमी हूँ





आदमी हूँ, पर आदमी होना कोई मजाक नही है
सच है इससे ज्यादा कुछ और दर्दनाक नही है।

रोज-ब-रोज पीना ही है हमको खून के ही आँसू
दिखाना है जमाने को कि ये जिगर चाक नही है।

झील में कफ़ासत और आँख में आँसू की तरह
दर्द है दिल का अलंकार, क्या यह मजाक नही है?

मंजिलें हैं अभी बहुत दूर, रास्ते सभी धुँधला गये
पग-पग गिरे बिजली, क्या राह शोलानाक नही है?

जख्म यादों के हरे हो जब-तब टीसते से रहते है
दर्द की बेचैनियों मे अश्कों की कोई फ़िराक नही है।

ज़िन्दगी कम, काम ज्यादा, मौत मोहलत दे न दे
लडना है खुद से ही, पर हाथ में कोई यराक नही है।


.......................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


चाक=कटा हुआ
कफ़ासत=काई, गंदगी
शोलानाक=अंगारों से भरा
फ़िराक=खयाल
यराक=अस्त्र-शस्त्र


Sunday, December 11, 2011

{ ७३ } गमों का पर्वत ले लिया हमने.....






ज़िन्दगी में जाने कितना आँसुओं को पिया हमने
ज़िन्दगी को इकरामे-ज़िन्दगी सा कब जिया हमने।

कानों को झूठ सुनने की आदत हो चुकी है इसकदर
सच न कह दूँ इसलिये जुबाँ को ही सी लिया हमने।

न मंजिल है, न मंजिल की कोई दूर तक है उम्मीद
बस मंजिलों से ही इंतिहाई फ़ासला ही किया हमने।

हम अपनी मंजिलों से इस तरह बेखबर न हुए होते
खुद के साथ भी तो केवल खुदफ़रेब ही किया हमने।

ये किस अजीयत देह सी दुनिया में आ गये है हम
अपने हिस्से मे कितने इल्जामों को ले लिया हमने।

दरब हैं तो क्या दोस्त-दुश्मन सभी ने मुझको परखा
कसौटी पर इम्तिहान से कब किनारा किया हमने।

जहाँ में हर कोई अपना-अपना मुकद्दर ले के आया है
सभी लब मुस्कुरायें, गमों का पर्वत ले लिया हमने।

न जमीं का होश रहा, न आस्माँ की है मुझको खबर
गमों में ही गुम होकर सारी उम्र को बिता दिया हमने।

अब क्या बचा है जिसके सहारे जी सकें हम ज़िन्दगी
ख्वाब-तसव्वुरों को दुनियासाजी में बिखरा दिया हमने।

जीने की तमाम कोशिशों का आखिरी नतीजा यही हुआ
मरते हुए कुछ और मर गया, यही महसूस किया हमने।


................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


इकरामे-ज़िन्दगी=भगवान की दी ज़िन्दगी

इंतिहाई=लम्बा

खुद फ़रेब=खुद को धोखे मे रखना, आत्मवंचक

अजीयत देह=कष्टदायी

दरब=खरा सोना

दुनियासाजी=बनावटी बातें


Saturday, December 3, 2011

{ ७२ } बेनाम आँसू






जब से गये हो तुम जीना भी दुश्वार हो गया
हर एक लम्हा ज़िन्दगी का नागवार हो गया।

उन ख्वाबों को अपनी आँखों से कैसे जुदा करे
जो ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सेदार हो गया।

ख्वाब अक्सर ज़िन्दगी का जंजाल हुआ करते
कुछ सच्चे ख्वाबों का अहम किरदार हो गया।

संगदिल जिस्मों के बंजर देख आँसू हुए बेनाम
दिलजोई अब नही रही इश्क भी लाचार हो गया।

हमने जिसको प्यार से सींचावो हुआ जहरीला
संवारे संवरता नही, इश्क तन्हा मीनार हो गया।


.......................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


दिलजोई=संवेदना